EPS Minimum Pension Hike Debate: 7,500 रुपये या 9,000 रुपये – पेंशनभोगियों के लिए क्या बेहतर है?वर्तमान में कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) के तहत आने वाली कर्मचारी पेंशन योजना (EPS), 1995 में न्यूनतम पेंशन के रूप में प्रतिमाह सिर्फ 1,000 रुपये ही देने की व्यवस्था है, और इसे पिछली बार 1 सितंबर 2014 को ही तय किया गया था। उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने यह सुनिश्चित किया था कि प्रथम बार पेंशनभोगियों को कम से कम 1,000 रुपये की पेंशन मिले। लेकिन पिछले लगभग दस वर्षों में महंगाई, जीवन यापन की लागत और सामान्य रूप से जीवन स्तर में बदलाव इतने बढ़ गए हैं कि 1,000 रुपये की मासिक पेंशन पेंशनभोगियों के लिए लगभग अपर्याप्त सी हो गई है। ऐसे में अब यह बहस छिड़ गई है कि सबसे सही न्यूनतम पेंशन कितनी होनी चाहिए, जिससे पेंशनभोगियों को सम्मानजनक जीवनयापन का अवसर मिल सके।
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EPFO के प्रस्ताव और यूनियनों की मांगें
कुछ रिपोर्टों के अनुसार, EPFO ने सरकार के सामने यह प्रस्ताव रखा है कि न्यूनतम पेंशन को 1,000 रुपये की बजाय 7,500 रुपये प्रतिमाह किया जाए। जबकि विभिन्न श्रमिक संगठनों और पेंशनभोगी यूनियनों की ओर से लगातार आवाज उठ रही है कि कम से कम 9,000 रुपये प्रतिमाह की पेंशन होनी चाहिए। इन यूनियनों का तर्क है कि गहन आर्थिक अस्थिरता, महंगाई दर में वृद्धि और वृद्धावस्था में चिकित्सा खर्च जैसे अनेक कारक देखते हुए 9,000 रुपये का न्यूनतम पेंशन का अंक ही वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप है। दूसरी ओर कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि 7,500 रुपये पर भी विचार करना उचित रहेगा, क्योंकि इससे सरकार पर बोझ कम रहेगा और वे जल्दी ही इस प्रस्ताव को लागू कर सकते हैं। इस पूरे मामले पर अभी तक केंद्र सरकार की ओर से कोई आधिकारिक पुष्टि या निर्णय नहीं आया है।
EPS 1995 की संरचना और योगदान का ढांचा
कर्मचारी पेंशन योजना (EPS), 1995 को एक “योगदान-परिभाषित (Contribution-Defined) लाभ योजना” के रूप में स्थापित किया गया था। इसका मतलब यह है कि पेंशनभोगियों को मिलने वाली पेंशन मुख्यतः उस कुल धनराशि के आधार पर तय होती है, जो उनके नियोक्ता तथा सरकार द्वारा EPS फंड में जमा किया गया। प्रतिमाह, नियोक्ता अपनी मजदूरी (वेतन) का 8.33 प्रतिशत EPS में योगदान के रूप में देता है, जबकि केंद्र सरकार बजट सहायता के माध्यम से अपने हिस्से के रूप में 1.16 प्रतिशत योगदान देती है। यह योगदान अधिकतम 15,000 रुपये माह की मजदूरी पर आधारित होता है, यानी कि यदि कर्मचारी का आधार वेतन या मासिक वेतन 15,000 रुपये से अधिक है, तब भी योगदान की गणना 15,000 रुपये पर ही की जाती है। EPS का कुल फंड इसी तरह से जमा राशि और उसके ब्याज से बनता है, और इस फंड से पेंशनभोगियों को उनकी पेंशन वितरित की जाती है।
कोरोना महामारी के बाद पेश किये गये सुझाव
कोविड-19 महामारी के बाद जब आर्थिक हालात और कठिन होते चले गए, वृद्धावस्था में रहने वालों का जीवन यापन और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया। इस दौरान श्रम मंत्रालय को पेंशनभोगियों एवं श्रमिक संगठनों की ओर से बार-बार प्रतिनिधिमंडल प्राप्त हुआ, जिसमें न्यूनतम पेंशन बढ़ाने की मांग की गई। इन मांगों में वृद्धावस्था में चिकित्सा खर्च, महंगाई की दर में लगातार इजाफ़ा और वृद्धावस्था में जीवन की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कठिन होने जैसे वास्तविक कारण सामने आए। महंगाई दर के बढ़ने के परिणामस्वरूप यदि कोई व्यक्ति पहले 1,000 रुपये में महीने का गुज़ारा कर रहा था, तो अब वह भी मुश्किल से संभव हो पा रहा है। ऐसे में पेंशनभोगियों के हित में न्यूनतम पेंशन बढ़ाकर कम से कम 7,500 या 9,000 रुपये प्रतिमाह करने की बात कही जाने लगी।
तीसरी-पक्ष समीक्षा हेतु समिति का गठन
इस मसले को गंभीरता से लेते हुए EPFO ने संसद में एक समिति गठित करने का निर्णय लिया, जो EPS, 1995 की गहन समीक्षा करेगा। इस समीक्षा समिति का नेतृत्व भाजपा के सांसद बसवराज बॉम्बे कर रहे हैं। समिति ने श्रम मंत्रालय से अपील की है कि वह EPS योजना की व्यापक समीक्षा कराए, ताकि पेंशनभोगियों की वास्तविक समस्याओं का पता चल सके और एक तटस्थ तृतीय-पक्ष एजेंसी के तहत सभी पहलुओं की जांच हो सके। समीक्षा का उद्देश्य न केवल न्यूनतम पेंशन के स्तर को आकलित करना है, बल्कि योजना की दीर्घकालीन स्थिरता और सदैव उपलब्ध गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सुधारात्मक सिफ़ारिशें तैयार करना भी है। समिति का मानना है कि तृतीय-पक्ष की निष्पक्ष रिपोर्ट से सरकार को स्पष्ट सुझाव मिलेंगे, जिन पर आधारित होकर एक समुचित निर्णय लिया जा सकेगा।
पेंशनभोगियों के जीवन पर असर
जब न्यूनतम पेंशन मात्र 1,000 रुपये प्रतिमाह थी, तब भी पेंशनभोगी व्यक्ति अपने दैनिक खर्च चलाने के लिए कभी-कभी अपने परिवार को भी बोझ समझकर स्वयं की ज़रूरतें दफ़न कर देता था। खाने-पीने की बुनियादी सामग्री, बिजली-गैस का खर्च, दवाइयों की लागत और इलाज के लिए जरूरी खर्चों को वह अक्सर टालता या तमाम संघर्षों के बाद भी पूरे नहीं कर पाता था। अब यदि न्यूनतम पेंशन को 7,500 या 9,000 रुपये किया जाता है, तो वृद्धावस्था में रहने वाले व्यक्तियों के लिए ये एक बड़ी राहत होगी। पुरानी उम्र में चिकित्सा खर्चों का साथ-साथ घर का रोज़मर्रा का खर्च जैसे राशन, पानी, बिजली, इलाज आदि की लागत वह आसानी से उठा पाएंगे। इससे वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने रहेंगे, अकेलेपन और हताशा की भावना से बच सकेंगे, और जीवन में सम्मान बनाए रख पाएंगे।
सरकार की चुनौतियाँ और वित्तीय अनुमान
केंद्र सरकार के लिए इस योजना की न्यूनतम पेंशन को बढ़ाना कोई आसान कदम नहीं है। इसे लागू करने पर खर्चों में भारी इज़ाफा होगा, क्योंकि बुनियादी आंकड़ों के हिसाब से देश में लाखों पेंशनभोगी पहले से ही इस योजना के दायरे में आते हैं। यदि न्यूनतम पेंशन को 1,000 रुपये से बढ़ाकर 7,500 या 9,000 रुपये पर लाया जाता है, तो सरकार को प्रतिमाह कितनी अतिरिक्त राशि खर्च करनी होगी, इसकी गणना भी करना पड़ेगा। इसके अलावा, फंड की दीर्घकालीन स्थिरता को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लेना ज़रूरी होगा कि ऐसे बदलाव से EPS फंड पर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा। सरकारी खजाने से आने वाली बजट सहायता और भविष्य में निवेश की संभावनाएँ, दोनों को ठीक से संतुलित करना होगा, ताकि एक ओर पेंशनभोगियों को संतोषजनक पेंशन मिल सके, और दूसरी ओर योजना की आर्थिक व्यवहारिकता एक लंबी अवधि तक बनी रहे।
आगे का रास्ता और संभावित समाधान
अब जबकि EPFO के पास तृतीय-पक्ष समीक्षकों की रिपोर्ट आने वाली है, इसके आधार पर सरकार के सामने स्पष्ट दस्तावेज़ होंगे कि न्यूनतम पेंशन में वास्तविक रूप से कितना इज़ाफ़ा संभव और ज़रूरी है। ऐसे में संभव है कि सरकार 7,500 रुपये की श्रेणी में कुछ संशोधन करे अथवा मध्य मार्ग अपनाते हुए 9,000 रुपये से थोड़ी कम, जैसे 8,000 रुपये प्रतिमाह का न्यूनतम पेंशन प्रस्ताव रखे। इसके अलावा, पेंशनभोगियों की विशिष्ट ज़रूरतों, वृद्धावस्था में चिकित्सा व्यय, आवासीय लागत जैसी वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखकर, एक बहुस्तरीय पेंशन व्यवस्था लाई जा सकती है। मैनेजमेंट एक्सपर्ट्स और इकोनॉमिस्ट मिलकर इस पर काम करें, तो यह सुनिश्चित किया जा सके कि वृद्धावस्था में रहने वाले कोई भी व्यक्ति बेसिक मानवाधिकार—यानी सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अधिकार—से वंचित न रहे।
निष्कर्ष
EPS के तहत न्यूनतम पेंशन को बढ़ाना एक कठिन परंतु अत्यंत आवश्यक कदम है। जब सरकार 2014 में पहली बार 1,000 रुपये की पेंशन निर्धारित कर रही थी, तब निश्चित रूप से उस समय की परिस्थितियाँ इसे उचित साबित करती थीं। लेकिन अब समय बदल चुका है। महंगाई की दर बढ़ चुकी है, जीवनयापन की लागत ऊँची हो चुकी है, और वृद्धावस्था में हाशिए पर रह जाने वाले पेंशनभोगियों को सम्मानजनक जीवनयापन की आवश्यकता बढ़ गई है। इसलिए यह विवाद—7,500 रुपये पूरे पेंशन या फिर यूनियनों की मांग के अनुरूप 9,000 रुपये प्रतिमाह—सिर्फ एक आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि असल में देश के बुज़ुर्गों के जीवन का सम्मान और गरिमा से जुड़ा मुद्दा है। EPFO की तृतीय-पक्ष समीक्षा समिति की रिपोर्ट आने के बाद सरकार को उम्मीद के मुताबिक़ जल्द ही निर्णय लेना चाहिए, ताकि लाखों पेंशनभोगी स्वयं पर आर्थिक सुरक्षा को महसूस कर सकें और वृद्धावस्था में भी राहत की सुकून भरी सांस ले सकें।
